إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ

封锁这个用户   报告该用户

您可以查看该用户发表的新动漫文章
如果你想关注这个用户,请登录 登录

إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ

إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ
IM FROM OMAN
إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ

إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ

إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ
إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ🇴🇲إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ

إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ
إًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰإًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍّٰ

14 跟随     10 追随者